सड़क पर सौहार्द
राकेश एक प्राइवेट कम्पनी में काम करता है और हर साप्ताहिक अवकाश पर अपने गांव को जाता है। नौकरी करने के स्थान और उसके गांव के बीच यातायात की अच्छी सुविधा है । गांव से लेकर रेलवे स्टेशन तक उसे समय समय पर बस मिल जाती हैं। रेलवे स्टेशन के अंतिम प्लेटफार्म और हाईवे के बीच लगभग डेढ़ सौ मीटर की दूरी है। यह हाईवे राष्ट्रीय राजार्ग 44 का हिस्सा है जो कि व्यावसायिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि अभी पिछले साल ही इस राजमार्ग को फोरलेन में बदला गया है इसलिए इसके किनारे की जमीन रेलवे स्टेशन के पास खाली पड़ी है, जिस पर कई भूमाफियाओं की नजर है।एक दो साल तो माहौल बिल्कुल सामान्य रहा। लेकिन एक दिन राकेश ने रेलवे स्टेशन से हाईवे की ओर निकलने वाली पगडंडी के बगल में एक काले तिरपाल की झोंपड़ी देखी जो किसी ने रात के अंधेरे में बना दी थी। राकेश ने चलते चलते झोंपड़ी के अंदर झांकने की कोशिश की लेकिन झोंपड़ी चारों ओर से बन्द थी शायद उसके अंदर कोई था भी नहीं।ऐसे ही कई सप्ताह गुजर गए एक दिन रकेश ने देखा कि उस झोंपड़ी के बाहर लकड़ी की चारपाई पर एक नवनिर्मित बाबा बैठा था।जो बाबा कम पहलवान ज्यादा लग था। या यूं कह सकते हैं कि नया नया रूप धारण किया था अभी भाव आने बाकि थे। कुछ सप्ताह बाद उस झोंपड़ी की सारी तिरपाल हटा दी गई और झोंपड़ी के बीच एक नवनिर्मित मजार आम लोगों की नजरों के लिए तैयार थी। किस्सा मजार तक ही नहीं रुका मजार के बिल्कुल बगल में पता नहीं कब एक मन्दिर भी बनकर तैयार हो गया।इतना सांप्रदायिक सौहार्द कि देखने वाला भी हैरान रह जाए। लेकिन बात धर्म की नहीं थी जो दिखाया जा रहा था। अब वहां से बाबा गायब हो चुका था शायद उसका काम इतना ही था।
कुछ ही दिनों बाद मन्दिर के बगल में एक ट्रैवल एजेंसी नजर आने लगी।उसके बगल में ढाबा बनकर तैयार हो गया ओर कितनी ही छोटी छोटी बीड़ी सिगरेट की दुकानें यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक आगे हाईवे पर बना रेन शेल्टर नहीं आ गया। राकेश जब भी उस रास्ते से गुजरता है तो उस मजार को देखना कभी नहीं भूलता।
......मिलाप सिंह भरमौरी