कैसा वो दौर था
कैसी थी हवाएँ
जब अपने प्यारे भारत को
लग रहीं थी बद्दुआएँ
जब घ्रीणा की दुर्गंध
हर ओर से थी आती
जब बन गया था वैरी
अपना धर्म- समप्रदाय और जाित
न जाने कैसी वो शतरंज थी
और कैसा था वो पासा
िजसने हर िकसी के मन में
भर दी थी िनराशा
कैसा वो दौर था
कैसी थी बहारें
जब दाडी-मूछ के भेद पर
बरस रही थी तलवारें
काश! के कोई न करता
उन सरहदों से शरार्त
काश! के अब भी होता
वो अपना संयुक्त िवशाल भारत
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