उफनते गम के सुमुंदर
में उतर जाता हूँ
मै हंसते -हंसते कहीं
पे सिसक जाता हूँ
खुशियों की माला बनाने
की कोशिस में
टूटे धागे के मनको
सा बिखर जाता हूँ
बज्म में अपने जज्बात
छुपाने की खातिर
उछलते पैमाने की तरह
मैं छलक जाता हूँ
हाल ये है हिज्र-ए-मोहबत
में मेरा कि
दीद के बस एक पल को
मैं तरस जाता हूँ
दिल जलाती हुई अँधेरी रातों में
'अक्स'
गरीब के आंसूं की तरह
मै बरस जाता हूँ
शव को देखता है कोई
हसरत से मगर
सुबह नशे की तरह मै
उतर जाता हूँ
दर्द, गम और तन्हाई ही दिखे मुझको बस
उठा के कदम खुदा मै
जिधर भी जाता हूँ
मिलाप सिंह
वाह मिलाप जी , सभी टुकडे बेहतरीन हैं । सुंदर शायरी
ReplyDeleteअव्यवस्था के प्रति असंतोष से उपजता आंदोलन
खुशियों की माला बनाने की कोशिस में
ReplyDeleteटूटे धागे के मनको सा बिखर जाता हूँ
बहुत ही सुंदर.......
शानदार लेखन,
ReplyDeleteजारी रहिये,
बधाई !!