milap singh

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Sunday 28 May 2023

सरकारी भूमि हूं

नजर गड़ाए फिरते हैं
ललचाए ललचाए फिरते हैं 
दिन रात षड्यंत्र रचाते हैं
मैं कैसे अपना अस्तित्व बचाऊं
अपनो का प्यार भूली हूं।
मैं सरकारी भूमि हूं।

चरागाह पर हो गए कब्जे
जंगल को तो सूखे निगले।
आंगन अपना कर लिया चौड़ा
शमशान घाट को भी न छोड़ा।
मैं वोट की खातिर सूनी हूं
मैं सरकारी भूमि हूं।

सरकारी रास्ते के खो गए पत्थर
बचपन में हम चलते थे जिन पर
कुएं पुराने भी नजरों में है
सड़क के आधे से कम हो गए मीटर
मैं रख रखाब से छूटी हूं
मैं सरकारी भूमि हूं।

........मिलाप सिंह भरमौरी।




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