milap singh

milap singh

Thursday 27 December 2012

उफनते गम के सुमुंदर में






उफनते गम के सुमुंदर में उतर जाता हूँ
मै हंसते -हंसते कहीं पे सिसक जाता हूँ

खुशियों की माला बनाने की कोशिस में
टूटे धागे के मनको सा बिखर जाता हूँ

बज्म में अपने जज्बात छुपाने की खातिर
उछलते पैमाने की तरह मैं छलक जाता हूँ

हाल ये है हिज्र-ए-मोहबत में मेरा कि
दीद के बस एक पल को मैं तरस  जाता हूँ

दिल जलाती हुई अँधेरी रातों में 'अक्स'
गरीब के आंसूं की तरह मै बरस जाता हूँ

शव को देखता है कोई हसरत से मगर
सुबह नशे की तरह मै उतर जाता हूँ

दर्द, गम और  तन्हाई ही दिखे मुझको बस
उठा के कदम खुदा मै जिधर भी जाता हूँ


मिलाप सिंह

3 comments:

  1. वाह मिलाप जी , सभी टुकडे बेहतरीन हैं । सुंदर शायरी


    अव्यवस्था के प्रति असंतोष से उपजता आंदोलन



    ReplyDelete
  2. खुशियों की माला बनाने की कोशिस में
    टूटे धागे के मनको सा बिखर जाता हूँ
    बहुत ही सुंदर.......

    ReplyDelete
  3. शानदार लेखन,
    जारी रहिये,
    बधाई !!

    ReplyDelete